पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१४०

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धनंजय-विजय
हरष बढ़ाय ऑगुरीन को नचाय पिधैं,
सोनित-पियासी सी पिसाचन की बेटी हैं॥

विद्या०-देव ! देखिए-

हिलन धुजा सिर ससि चमक मिलिकै व्यूह लखात।
तुव सुत-सर लगि घूमि जब गज-गन मंडल खात॥

इंद्र-(आनंद से देखता है)

प्रति०-देव, देखिए ! देखिए ! आपके पुत्र के धनुष से छूटे हुए बानो से मनुष्य और हाथियों के अंग कटने से जो लहू की धारा निकलती है उसे पी-पीकर यह जोगिनिएँ आपके पुत्र ही की जीत मनाती हैं।

इंद्र-तो जय ही है, क्योंकि इनकी असीस सच्ची है।

विद्या०-(देखकर) देव ! अब तो बड़ा ही घोर युद्ध हो रहा है। देखिए-

बिरचि नली गजसुंड की काटि काटि भट सीस।

रुधिर पान करि जोगिनी विजयहि देहि असीस॥
टूटि गई दोउ भौंह स्वेद सों तिलक मिटाए।
नयन पसारे लाल क्रोध सों ओठ चबाए॥
कटे कुंडलन मुकुट बिना श्रीहत दरसाए।
वायु वेग बस केस मूछ दाढ़ी फहराए॥
तुव तनय-बान लगि बैरि-सिर एहि बिधि सों नभ में फिरत।

तिन संग काक अरु कंक बहु रंक भए धावत गिरत॥

बड़े (आश्चर्य से इधर-उधर देखकर) देव ! देखिए-