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भारतेंदु-नाटकावली
सीस कटे भट सोहहीं नैन जुगल बल लाल।
बरहिं तिनहिं नाचहिं हँसहिं गावहिं नभ सुरबाल॥

इंद्र-(हर्ष से) मैं क्या-क्या देखूँ? मेरा जी तो बावला हो रहा है।

इत लाखन कुरु सँग लरत इकलो कुंतीनंद।
उत बीरन कों बरन को लरहि अप्सरावृंद॥

विद्या०-ठीक है (दूसरी ओर देखकर) देव ! इधर देखिए-

लपटि दपटि चहुँ दिसन बाग बन जीव जरावत।

ज्वाला-माला लोल लहर धुज सी फहरावत॥
परम भयानक प्रगट प्रलय सम समय लखावत।

गंगा-सुत कृत अगिन-अस्त्र उमग्यो ही आवत॥

प्रति०-देव ! मुझे तो इस कड़ी आँँच से डर लगती है।

विद्या०-भद्र ! व्यर्थ क्यों डरता है, भला अर्जुन के आगे यह क्या है? देख-

अर्जुन ने यह वरुन अस्त्र जो बेगि चलायो।

तासों नभ में घोर घटा को मंडल छायो॥
उमड़ि उमड़ि करि गरज बीजुरी चमकि डरायो।

मुसलधार जल बरसि छिनक मैं ताप बुझायो॥

इंद्रर-बालक बड़ा ही प्रतापी है।

प्रति०-देव ! राधेय ने यह भुजंगास्त्र छोड़ा है, देखिए अपने मुखों से आग सा विष उगलते हुए, अपने सिर के मणियों से चमकते हुए इंद्रधनुष से पृथ्वी को व्याकुल करते हुए,