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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१५५

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समर्पण

नाथ!

यह एक नया कौतुक देखो। तुम्हारे सत्यपथ पर चलनेवाले कितना कष्ट उठाते हैं, यही इसमें दिखाया है। भला हम क्या कहें? जो हरिश्चंद्र ने किया वह तो अब कोई भी भारतवासी न करेगा, पर उस वंश ही के नाते इनको भी मानना। हमारी करतूत तो कुछ भी नहीं, पर तुम्हारी तो बहुत कुछ है। बस, इतना ही सही। लो सत्यहरिश्चंद्र तुम्हे समर्पित है, अंगीकार करो। छल मत समझना। सत्य का शब्द सार्थ है, कुछ पुस्तक के बहाने समर्पण नहीं है।

तुम्हारा

हरिश्चंद्र