( नारदजी* आते हैं )
इंद्र---( हाथ जोड़कर दंडवत् करता है ) आइए आइए, धन्य भाग्य, आज किधर भूल पड़े?
नारद---हमें और भी कोई काम है? केवल यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ; यही हमें है कि और भी कुछ?
इंद्र---साधु स्वभाव ही से परोपकारी होते हैं, विशेष करके आप ऐसे जो हमारे से दीन गृइस्थो को घर बैठे दर्शन देते हैं। क्योकि जो लोग गृहस्थ और कामकाजी हैं वे स्वभाव ही से गृहस्थी के बंधनो से ऐसे जकड़ जाते हैं कि साधुसंगम तो उनको सपने में भी दुर्लभ हो जाता है, न वे अपने प्रबंधो से छुट्टी पावेंगे न कहीं जायँगे।
नारद---आपको इतना शिष्टाचार नहीं सोहता। आप देवराज हैं और आपके संग को तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इच्छा करते हैं, फिर आपको सत्संग कौन दुर्लभ है? केवल जैसा राजा लोगों में एक सहज मुँहदेखा व्यापार होता है वैसी ही बातें आप इस समय कर रहे हैं।
इंद्र---हमको बड़ा शोच है कि आपने हमारी बातों को
- धोती की लाँग कसे, गाँती बाँधे, सिर से पाँव तक चन्दन का
खौर दिए, पैर में घुँघरू, सिर के बाल छुटे और हाथ में बीन लिए हुए। आने और जाने के समय "रामकृष्ण गोविंद" की ध्वनि नेपथ्य में से हो।