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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१६२

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सत्यहरिश्चंद्र

शिष्टाचार समझा। क्षमा कीजिए, आपसे हम बनावट नहीं करते। भला विराजिए तो सही, यह बातें तो होती ही रहेंगी।

नारद---विराजिए। ( दोनो बैठते हैं )

इंद्र---कहिए, इस समय कहाँ से आना हुआ?

नारद---अयोध्या से। अहा! राजा हरिश्चंद्र धन्य है। मैं तो उसके निष्कपट और अकृत्रिम स्वभाव से बहुत ही संतुष्ट हुआ। यद्यपि इसी सूर्य-कुल में अनेक बड़े-बड़े धाम्मिक हुए पर हरिश्चंद्र तो हरिश्चंद्र ही है।

इंद्र---( आप ही आप ) यह भी तो उसी का गुण गाते है।

नारद---महाराज! सत्य की तो मानो हरिश्चंद्र मूर्ति है। निस्संदेह ऐसे मनुष्यो के उत्पन्न होने से भारतभूमि का सिर केवल इनके स्मरण से उस समय भी ऊँचा रहेगा जब यह पराधीन होकर हीनावस्था को प्राप्त होगी।

इंद्र---( आप ही आप ) अहा! हृदय भी ईश्वर ने क्या ही वस्तु बनाई है! यद्यपि इसका स्वभाव सहज ही गुणग्राही हो, तथापि दूसरो की उत्कट कीर्ति से इसमें ईर्षा होती है, उसमें भी जो जितने बड़े है उनकी ईर्षा उतनी ही बड़ी है। हमारे ऐसे बड़े पदाधिकारियों को शत्रु उतना संताप नहीं देते जितना दूसरो की संपत्ति और कीर्ति।

नारद---आप क्या सोच रहे है?