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भारतेंदु-नाटकावली

इन्हीं पर है, पर जो बड़े लोग हैं उनके सब काम महारंभ होते है तब भी उनके मुख पर कहीं से व्याकुलता नहीं झलकती, क्योकि एक तो उनके उदार चित्त में धैर्य और अवकाश बहुत है, दूसरे उनके समय व्यर्थ नहीं जाते और ऐसे यथायोग्य बँटे रहते है जिससे उन पर कभी भीड़ पड़ती ही नहीं।

इंद्र---भला महाराज! यह ऐसे दानी है तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है?

नारद---यही तो हम कहते हैं। निस्संदेह वह राजा कुल का कलंक है, जिसने बिना पात्र विचारे दान देते-देते सब लक्ष्मी का क्षय कर दिया, आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया और जहाँ प्रबंध है वहाँ धन की क्या कमती है। मनुष्य कितना धन देगा और याचक कितना लेंगे?

इंद्र---पर यदि कोई अपने वित्त के बाहर माँगे या ऐसी वस्तु माँगे जिससे दाता की सर्वस्व-हानि होती हो, तो वह दे कि नहीं?

नारद---क्यों नहीं। अपना सर्वस्व वह क्षण भर में दे सकता है, पात्र चाहिए। जिसको धन पाकर सत्पात्र में उसके त्याग की शक्ति नहीं है वह उदार कहाँ हुआ!

इंद्र---( आप ही आप ) भला देखेगे न।