पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१६६

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सत्यहरिश्चंद्र

नारद---राजन्! मानियो के आगे प्राण और धन तो कोई वस्तु ही नहीं है। वे तो अपने सहज सुभाव ही से सत्य और विचार तथा दृढता में ऐसे बँधे है कि सत्पात्र मिलने या बात पड़ने पर उनको स्वर्ण का पर्वत भी तिल सा दिखाई देता है। और उसमें भी हरिश्चंद्र---जिसका सत्य पर ऐसा स्नेह है जैसा भूमि, कोष, रानी और तलवार पर भी नहीं है। जो सत्यानुरागी ही नहीं है, भला उससे न्याय कब होगा, और जिसमें न्याय नहीं है, वह राजा ही काहे का है? कैसी भी विपत्ति या संकट पड़े और कैसी ही हानि वा लाभ हो, पर न्याय न छोड़े, वही धीर और वही राजा। और उस न्याय का मूल सत्य है।

इंद्र---तो भला वह जिसे जो देने को कहेगा देगा वा जो करने को कहेगा वह करेगा?

नारद---क्या आप उसका परिहास करते है? किसी बड़े के विषय में ऐसी शंका ही उसकी निंदा है। क्या आपने उसका यह सहज साभिमान वचन नहीं सुना है?

चंद टरै सूरज टरै, टरै जगतब्यौहार।
पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्यविचार॥

इंद्र---( आप ही आप ) तो फिर इसी सत्य के पीछे नाश भी होंगे, हमको भी अच्छा उपाय मिला। ( प्रगट )

भा० ना०---४