पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१६८

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सत्यहरिश्चंद्र

नारद---राजन्! आपको यह सब सोचना बहुत अयोग्य है। ईश्वर ने आपको बड़ा किया है, तो आपको दूसरों की उन्नति और उत्तमता पर संतोष करना चाहिए। ईर्षा करना तो क्षुद्राशयों का काम है। महाशय वही है जो दूसरो की बड़ाई से अपनी बड़ाई समझे।

इंद्र---( आप ही आप ) इनसे काम न होगा। ( बात बहलाकर प्रगट ) नहीं नहीं, मेरी यह इच्छा थी कि मैं भी उनके गुणो को अपनी आँखो से देखता। भला मैं ऐसी परीक्षा थोड़े लेना चाहता हूँ जिससे उन्हें कुछ कष्ट हो।

नारद---( आप ही आप ) अहा! बड़ा पद मिलने से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा वही है जिसका चित्त बड़ा है। अधिकार तो बड़ा है, पर चित्त में सदा क्षुद्र और नीच बातें सूझा करती हैं, वह आदर के योग्य नहीं है; परंतु जो कैसा भी दरिद्र है पर उसका चित्त उदार और बड़ा है वही आदरणीय है।

( द्वारपाल आता है )

द्वार०---महाराज! विश्वामित्रजी आए हैं।

इंद्र---( आप ही आप ) हॉ, इनसे यह काम होगा। अच्छे अवसर पर आए। जैसा काम हो वैसे ही स्वभाव के लोग भी चाहिएँ। ( प्रगट ) हाँ हाँ, लिवा लाओ।