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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१६९

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भारतेंदु-नाटकावली

द्वार०---जो आज्ञा।

[ जाता है

( विश्वामित्रजी* आते हैं )

इंद्र---( प्रणामादि शिष्टाचार करके ) अाइए भगवन्, विराजिए।

( विश्वामित्र नारदजी को प्रणाम करके और इंद्र को आशीर्वाद देकर बैठते हैं )

नारद---तो अब हम जाते हैं, क्योकि पिता के पास हमें किसी आवश्यक काम को जाना है।

विश्वा०---यह क्या? हमारे आते ही आप चले, भला ऐसी रुष्टता किस काम की?

नारद---हरे हरे! आप ऐसी बात सोचते हैं---राम-राम, भला आपके आने से हम क्यों जायँगे? मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गए।

इंद्र---( हँसकर ) आपकी जो इच्छा।

नारद---( आप ही आप ) हमारी इच्छा क्या, अब तो आप ही की यह इच्छा है कि हम जायँ, क्योंकि अब आप तो विश्व के अमित्रजी से राजा हरिश्चंद्र को दुःख देने की सलाह कीजिएगा, तो हम उसके बाधक क्यों हों? पर इतना निश्चय रहे कि सज्जन को दुर्जन लोग जितना कष्ट


  • मृगचर्म दाढ़ी, जटा, हाथों में पवित्री और कमंडल, खड़ाऊँपर चढ़े।