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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१७१

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सत्यहरिश्चंद्र

देते हैं, उतनी ही उनकी सत्य कीर्ति तपाए सोने की भॉति और भी चमकती है, क्योंकि विपत्ति बिना सत्य की परीक्षा नहीं होती। ( प्रगट ) यद्यपि "जो इच्छा" आपने सहज भाव से कहा है तथापि परस्पर में ऐसे उदासीन वचन नहीं कहते, कोंकि इन वाक्यों से रूखापन झलकता है। मैं कुछ इसका ध्यान नहीं करता, केवल मित्रभाव से कहता हूँ। लो, जाता हूँ और यही आशीर्वाद देकर जाता हूँ कि तुम किसी को कष्टदायक मत होओ, क्योकि अधिकार पाकर कष्ट देना यह बड़ों की शोभा नहीं, सुख देना शोभा है।

( इद्र कुछ लज्जित होकर प्रणाम करता है। नारदजी जाते हैं )

विश्वा०---यह क्यों? अाज नारद भगवान ऐसी जली-कटी क्यों बोलते थे? क्या तुमने कुछ कहा था?

इंद्र---नहीं तो, राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग निकला था सो उन्होने उसकी बड़ी स्तुति की और हमारा उच्चपद का आदरणीय स्वभाव उस परकीर्ति को सहन न कर सका, इसमें कुछ बात ही बात ऐसा संदेह होता है कि वे रुष्ट हो गए।

विश्वा०---तो हरिश्चंद्र में कौन से ऐसे गुण हैं?

( सहज ही भृकुटी चढ़ जाती है )