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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१७२

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भारतेंदु-नाटकावली

इंद्र---( ऋषि का भ्रूभंग देखकर चित्त में संतोष करके उनका क्रोध बढ़ाता हुआ ) महाराज! सिपारसी लोग चाहे जिसको बढ़ा दे, चाहे घटा दें। भला सत्यधर्म-पालन क्या हँसी-खेल है? यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है, जिन्होंने घरबार छोड़ दिया है। भला राज करके और घर में रहके मनुष्य क्या धर्म का हठ करेगा! और फिर कोई परीक्षा लेता तो मालूम पड़ती। इन्हीं बातों से तो नारदजी बिना बात ही अप्रसन्न हुए।

विश्वा---मैं अभी देखता हूँ न। जो हरिश्चंद्र को तेजोभ्रष्ट न किया तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं। भला मेरे सामने वह क्या सत्यवादी बनेगा और क्या दानीपने का अभिमान करेगा!

( क्रोधपूर्वक उठकर चला चाहते हैं कि परदा गिरता है )