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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१८१

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सत्यहरिश्चंद्र

पृथ्वी को अपने बोझ से दबाते हैं। अरे दुष्ट! तै भूल गया; कल पृथ्वी किसको दान दी थी? जानता नहीं कि मैं कौन हूँ?

"जातिस्वयंग्रहणदुर्ललितैकविप्रं
दूप्यद्वशिष्ठसुतकाननधूमकेतुम्।
सर्गान्तराहरणभीतजगत्कृतान्त
चाण्डालयाजिनमवैषि न कौशिकं माम्॥"

हरि०---( पैरों पर गिरके बड़े विनय से ) महाराज! भला आपको त्रैलोक्य में ऐसा कौन है जो न जानेगा?

"अन्नक्षयादिषु तथा विहितात्मवृत्ति
राजप्रतिग्रहपराङ्मुखमानसं त्वाम्।
आडीबकप्रधनकम्पितजीवलोकं
कस्तेजसां च तपसां च निधिं न वेत्ति॥"

विश्वा०---( क्रोध से ) सच है रे पाप पाषंड, मिथ्यादानवीर! तू क्यों न मुझे "राज-प्रतिग्रह-पराङ्मुख" कहेगा; क्योंकि तैंने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान दी है, ठहर, ठहर देख, इस झूठ का कैसा फल भोगता है। हा! इसे देखकर क्रोध से जैसे मेरी दाहिनी भुजा शाप देने को उठती है वैसे ही जातिस्मरण संस्कार से बाईं भुजा फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है। ( अत्यंत क्रोध