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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१८०

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भारतेंदु-नाटकावली

ब्राह्मण को पृथ्वी दी है, इससे आज से उसका राज्य हरिश्चंद्र मंत्री की भॉति सँभालेगा।

( द्वारपाल आता है )

द्वार०---महाराजाधिराज! एक बड़ा क्रोधी ब्राह्मण दरवाजे पर खड़ा है और व्यर्थ हम लोगों को गाली देता है।

हरि०---( घबड़ाकर ) अभी आदरपूर्वक ले आओ।

द्वार०---जो आज्ञा।

[ जाता है

हरि०---यदि ईश्वरेच्छा से यह वही ब्राह्मण हो तो बड़ी बात है।

( द्वारपाल के साथ विश्वामित्र * आते हैं )

हरि०---( आदरपूर्वक आगे से लेकर और प्रणाम करके ) महाराज! पधारिए, यह आसन है।

विश्वा०---बैठे, बैठे, बैठ चुके, बोल, अभी तैने मुझे पहिचाना कि नहीं?

हरि०---( घबड़ाकर ) महाराज! पूर्वपरिचित तो आप ज्ञात होते हैं।

विश्वा०---( क्रोध से ) सच है रे क्षत्रियाधम! तू काहे को पहि- चानेगा। सच है रे सूर्यकुलकलंक! तू क्यो पहिचानेगा, धिक्कार है तेरे मिथ्या-धर्माभिमान को, ऐसे ही लोग


  • जटा और डाढ़ी बढ़ाए, खडाऊँ पहने, गले में मृगछाला बाँधे,

धोती पर बाध की मोटी करधनी, एक हाथ में कुश और कमंडल।