जेहि पाली इक्ष्वाकु सों अबलौं रवि-कुल-राजा।
ताहि देत हरिचंद नृप विश्वामित्रहिं आज॥
वसुधे! तुम बहु सुख कियो मम पुरुषन की होय।
धरमबद्ध हरिचंद को छमहु सु परबस जोय॥
विश्वा०---( आप ही आप ) अच्छा! अभी अभिमान दिखा ले। तो मेरा नाम विश्वामित्र, जो तुझको सत्य-भ्रष्ट करके न छोड़ा और लक्ष्मी से तो हो ही चुका है। ( प्रगट ) स्वस्ति अब इस महादान की दक्षिणा कहाँ है?
हरि०---महाराज! जो आज्ञा हो वह दक्षिणा अभी आती है।
विश्वा०---भला दस सहस्र स्वर्णमुद्रा से कम इतने बड़े दान की दक्षिणा क्या होगी!
हरि०---जो अाज्ञा। ( मंत्री से ) मंत्री! दस हजार स्वर्ण मुद्रा अभी लाओ।
विश्वा---( क्रोध से ) "मंत्री! दस हजार स्वर्णमुद्रा अभी लाओ" मंत्री कहाँ से लावेगा? क्या अब खजाना तेरा है? झूठा कहीं का! देना नहीं था तो मुँह से कहा क्यो? चल, मैं नहीं लेता ऐसे मनुष्य की दक्षिणा।
हरि०---( हाथ जोड़ कर विनय से ) महाराज, ठीक है। खजाना अब सब आपका है, मैं भूला, क्षमा कीजिए। क्या हुआ खजाना नहीं है तो मेरा शरीर तो है।