पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

तृतीय अंक में अंकावतार

स्थान---वाराणसी का बाहरी प्रांत तालाब

( पाप * आता है )

पाप---( इधर-उधर दौड़ता और हॉफता हुआ ) मरे रे मरे! जले रे जले!! कहाँ जायँ, सारी पृथ्वी तो हरिश्चंद्र के पुण्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम ठहर ही नहीं सकते। सुना है कि राजा हरिश्चंद्र काशी गए हैं, क्योंकि दक्षिणा के वास्ते विश्वामित्र ने कहा कि सारी पृथ्वी तो हमको तुमने दान दे दी है, इससे पृथ्वी में जितना धन है सब हमारा हो चुका और तुम पृथ्वी में कहीं भी अपने को बेचकर हमसे उऋण नहीं हो सकते। यह बात जब हरिश्चंद्र ने सुनी तो बहुत ही घबराए और सोच-विचारकर कहा कि बहुत अच्छा महाराज, हम काशी में अपना शरीर बेचेंगे, क्योकि शास्त्रो में मिला है कि काशी पृथ्वी के बाहर शिव के त्रिशूल पर है। यह सुनकर हम भी दौड़े कि चलो हम भी काशी चलें, क्योकि जहाँ हरिश्चंद्र का राज्य न होगा वहाँ हमारे


  • काजल सा रंग, लाल नेत्र, महाकुरूप, हाथ में नंगी तलवार

लिए, नीला काछा काछे।