पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१८८

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सत्यहरिश्चंद्र

'गिरिधरदास' पास भागीरथी सोभा देत
जाकी धार तोरैं आसु कर्मरूप रसी है।
ससी सम जसी असी बरना में बसी पाप
खसी हेतु असी ऐसी लसी बारानसी है॥"
"रचित प्रभा सी भासी अवलि मकानन की
जिनमें अकासी फबै रतन-नकासी है।
फिरै दास-दासी बिप्र गृही औ संन्यासी लसै
बर गुनरासी देवपुरी हू न जासी है॥
'गिरिधरदास' बिस्व कीरति बिलासी रमा
हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी है।
खासी परकासी पुनवॉसी चंद्रिका सी जाके
बासी अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है॥"

देखो! जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अँगूठी के नगीने सा नगर बनाया है वैसी ही नदी भी इसके लिये दी है। धन्य गंगे!

जम की सब त्रास बिनास करी मुख ते निज नाम उचारन में।
सब पाप प्रतापहिं दूर दर्यो तुम आपन आप निहारन में॥
अहो गंग अनंग के शत्रु करे बहु, नेक जलै मुख डारन में।
गिरिधारनजू' कितने बिरचे गिरिधारन धारन धारन में॥"

कुछ महात्म ही पर नहीं, गंगाजी का जल भी ऐसा ही उत्तम और मनोहर है! अहा!