सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

तृतीय अंक

स्थान---काशी के घाट-किनारे की सड़क

( महाराज हरिश्चंद्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं )

हरि०---देखो काशी भी पहुँच गए। अहा! धन्य है काशी! भगवति वाराणसि! तुम्हें अनेक प्रणाम है। अहा! काशी की कैसी अनुपम शोभा है!

"चारहु आश्रम बर्न बसै मनि
कंचन धाम अकासविभासिका।
सोभा नहीं कहि जाय कछू बिधिनै
रची मानो पुरीन की नासिका॥
पापु बसै 'गिरिधारन जू' तट
देवनदी बर बारि बिलासिका।
पुन्य-प्रकासिका पाप-बिनासिका
हीय-हुलासिका सोहत कासिका॥"
"बसै बिंदुमाधव बिसेसरादि देव सबै
दरसन ही ते लागै जममुख मसी है।
तीरथ अनादि पंचगंगा मनिकर्निकादि
सात आवरण मध्य पुन्यरूपी धसी है॥