पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७४
भारतेंदु-नाटकावली

को जीतकर धन लावें? पर कोई शस्त्र भी तो नहीं है; तो क्या किसी से माँगकर दें? पर क्षत्रिय का तो धर्म नहीं कि किसी के आगे हाथ पसारे, हिर ऋण काढ़ें? पर देंगे कहाँ से? हा! देखो, काशी में आकर लोग संसार के बंधन से छूटते हैं, पर हमको यहाँ भी हाय हाय मची है। हा! पृथ्वी! तू फट क्यों नहीं जाती कि मैं अपना कलंकित मुँह फिर किसी को न दिखाऊँ! ( आतंक से ) पर यह क्या? सूर्यवंश में उत्पन्न होकर हमारे ये कर्म हैं कि ब्राह्मण का ऋण दिए बिना पृथ्वी में समा जाना सेाचें। ( कुछ सोचकर ) हमारी तो इस समय कुछ बुद्धि ही नहीं काम करती। क्या करें? हमें तो संसार सूना देख पड़ता है। ( चिंता करके एक साथ हर्ष से ) वाह अभी तो स्त्री, पुत्र और हम तीन-तीन मनुष्य तैयार हैं। क्या हम लोगो के बिकने से दस सहस्त्र स्वर्णमुद्रा भी न मिलेगी? तब फिर किस बात का इतना सोच? न जाने बुद्धि इतनी देर तक कहाँ सोई थी; हमने तो पहले ही विश्वामित्र से कहा था---

बेचि देह दारा सुअन, होय दास हूँ मंद।
रखिहै निज बच सत्य करि, अभिमानी हरिचंद॥

( नेपथ्य में ) तो क्यों नहीं जल्दी अपने को बेचता?