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सत्यहरिश्चंद्र

क्या हमें और काम नहीं है कि तेरे पीछे-पीछे दक्षिणा के वास्ते लगे फिर?

हरि०---अरे मुनि तो आ पहुँचे। क्या हुआ आज उनसे एक-दो दिन की अवधि और लेगे।

( विश्वामित्र आते हैं )

विश्वा०---( आप ही आप ) हमारी विद्या सिद्ध हुई भी इसी दुष्ट के कारण सब बहक गई। कुछ इंद्र के कहने ही पर नहीं, हमारा इस पर स्वतः भी क्रोध है, पर क्या करें, इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमारा क्रोध कुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका, पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर लूँगा तब तक मेरा संतोष न होगा। ( आगे देखकर ) अरे! यही दुरात्मा ( कुछ रुककर ) वा, महात्मा हरिश्चंद्र हैं? ( प्रगट ) क्यों रे! आज महीने में कै दिन बाकी हैं? बोल कब दक्षिणा देगा?

हरि०---( घबड़ाकर ) अहा! महात्मा कौशिक भगवन्! प्रणाम करता हूँ। ( दंडवत् करता है )

विश्वा०---हुई प्रणाम, बोल तैने दक्षिणा देने का क्या उपाय किया? आज महीना पूरा हुआ, अब मैं एक क्षण भर भी न मानूँगा। दे अभी, नहीं तो---( शाप के वास्ते कमंडल से जल हाथ में लेते हैं )