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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२०३

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भारतेंदु-नाटकावली

धर्म---( आप ही आप )

हम प्रतच्छ हरिरूप जगत हमरे बल चालत।
जल-थल-नभ थिर मो प्रभाव मरजाद न टालत॥
हमहीं नर के मीत सदा साँचे हितकारी।
इक हमहीं सँग जात, तजत जब पितु सुत नारी॥

सो हम नित थित सत्य में जाके बल सब जग जियो।
सेाइ सत्य-परिच्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो॥

( आश्चर्य से आप ही आप ) सचमुच इस राजर्षि के समान दूसरा अाज त्रिभुवन में नहीं है।

( आगे बढ़कर प्रगट ) अरे! हरजनवाँ! मोहर का संदूक ले आवा है न?

सत्य---क चौधरी! मोहर ले के का करबो?

धर्म---तोह से का काम पूछै से?

( दोनों आगे बढ़ते हुए फिरते हैं )

हरि०---('अरे सुनो भाई सेठ साहूकार' इत्यादि दो-तीन बेर पुकार के इधर-उधर घूमकर ) हाय! कोई नहीं बोलता और कुलगुरु भगवान् सूर्य भी आज हमसे रुष्ट होकर शीघ्र ही अस्ताचल जाया चाहते हैं। ( घबराहट दिखाता है )

धर्म---( आप ही आप ) हाय हाय! इस समय इस महात्मा