पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२०८

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सत्यहरिश्चंद्र

जो मेरी ओर देखा था वह अब तक नहीं भूलती। ( घबड़ाकर ) हा देवी! सूर्यकुल की बहू और चंद्रकुल की बेटी होकर तुम बेची गईं और दासी बनीं। हा! तुम अपने जिन सुकुमार हाथों से फूल की माला भी नहीं गूंथ सकती थीं उनसे बरतन कैसे मॉजोगी? ( मोह प्राप्त होने चाहता है पर सम्हलकर ) अथवा क्या हुआ? यह तो कोई न कहेगा कि हरिश्चंद्र ने सत्य छोड़ा।

बेचि देह दारा सुअन, होइ दास हू मंद।
राख्यो निज बच सत्य करि, अभिमानी हरिचंद॥

( आकाश से पुष्पवृष्टि होती है )

अरे यह असमय में पुष्पवृष्टि कैसी? किसी पुण्यात्मा का मुरदा आया होगा। तो हम सावधान हो जायँ। [ लट्ठ कंधे पर रख कर फिरता हुआ ] खबरदार! खबरदार! बिना हमसे कहे और बिना हमें आधा कफन दिए कोई संस्कार न करे। [ यही कहता हुआ निर्भय मुद्रा उधर देखता फिरता है। नेपथ्य में कोलाहल सुन कर ] हाय-हाय! कैसा भयंकर श्मशान है! दूर से मंडल बाँध-बाँधकर चोच बाए, डैना फैलाए, कंगालो की तरह मुर्दों पर गिद्ध कैसे गिरते हैं और कैसा मांस नोच-नोचकर आपस में लड़ते और चिल्लाते हैं। इधर अत्यंत कर्णकटु अमंगल के नगाड़े की भॉति एक के शब्द की