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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२०७

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चतुर्थ अंक

स्थान---दक्षिण श्मशान

[ नदी, पीपल का बडा पेड, चिता, मुरदे, कौए, सियार, कुत्ते, हड्डी इत्यादि ]

( कंबल ओढ़े और एक मोटा लट्ठ लिए हुए राजा हरिश्चंद्र दिखाई पड़ते हैं )

हरि०---(लंबी सॉस लेकर ) हाय! अब जन्म भर यही दुख भोगना पड़ेगा।

जाति दास चंडाल की, घर घनघोर मसान।
कफन खसोटी को करम, सब ही एक समान॥

न जाने विधाता का क्रोध इतने पर भी शांत हुआ कि नहीं। बड़ो ने सच कहा है कि दुःख से दुःख जाता है। दक्षिणा का ऋण चुका, तो यह कर्म करना पड़ा। हम क्या सोचें? अपनी अनाथ प्रजा को, या दीन नातेदारो को, या अशरण नौकरों को, या रोती हुई दासियो को, या सूनी अयोध्या को, या दासी बनी महारानी को, या उस अनजान बालक को, या अपने ही इस चांडालपने को। हा! बटुक के धक्के से गिरकर रोहिताश्व ने क्रोध-भरी और रानी ने जाते समय करणा-भरी दृष्टि से