पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२१२

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सत्यहरिश्चंद्र

जिसमें बड़े-बड़े राज जीतने के मनोरथ भरे थे, आज पिशाचों का गेंद बना है और लोग उसे पैर से छूने में भी घिन करते हैं। ( आगे देखकर ) अरे यह श्मशान-देवी हैं। अहा! कात्यायनी को भी कैसा वीभत्स उपचार प्यारा है? यह देखो, डोम लोगों ने सूखे गले सड़े फूलों की माला गंगा में से पकड़-पकड़कर देवी को पहिना दी है और कफन की ध्वजा लगा दी है। मरे बैल और भैसो के गले के घंटे पीपल की डार में लटक रहे हैं, जिनमें लोलक की जगह नली की हड्डी लगी है। घंटे के पानी से चारों ओर से देवी का अभिषेक होता है और पेड़ के खंभे में लोहू के थापे लगे हैं। नीचे जो उतारों की बलि दी गई है उसके खाने को कुत्ते और सियार लड़-लड़कर कोलाहल मचा रहे हैं। ( हाथ जोड़कर )

"भगवति! चंडि! प्रेते! प्रेतविमाने! लसत्प्रेते! प्रेता-स्थिरौद्ररूपे! प्रेताशिनि! भैरवि! नमस्ते"॥

( नेपथ्य में )

राजन्! हम केवल चांडालो के प्रणाम के योग्य हैं। तुम्हारे प्रणाम से हमें लज्जा आती है। माँगो क्या वर माँगते हो?