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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२१३

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भारतेंदु-नाटकावली

हरि०---( सुनकर आश्चर्य से ) भगवति! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमारे स्वामी का कल्याण कीजिए।

( नेपथ्य में )

साधु महाराज हरिश्चंद्र साधु!

हरि०---( ऊपर देखकर ) अहा! स्थिरता किसी को भी नहीं है। जो सूर्य उदय होते ही पद्मिनीवल्लभ और लौकिक वैदिक दोनों कर्म का प्रवर्तक था, जो दोपहर तक अपना प्रचंड प्रताप क्षण-क्षण बढाता गया, जो गगनांगन का दीपक और कालसर्प का शिखामणि था, वह इस समय परकटे गिद्ध की भॉति अपना सब तेज गॅवाकर देखो समुद्र में गिरा चाहता है।

अथवा

सॉझ सोई पट लाल कसे कटि सूरज खप्पर हाथ लह्यो है।
पच्छिन के बहु शब्दन के मिस जीव उचाटन मंत्र कह्यो है॥
मद्य भरी नरखोपरी सो ससि को नव बिंबहु धाइ गह्यो है।
दै बलि जीव पसू यह मत्त है काल-कपालिक नाचि रह्यो है॥
सूरज धूम बिना की चिता सोई अंत में लै जल मॉहि बहाई।
बोलैं घने तरु बैठि बिहंगम रोअत सो मनु लोग-लोगाई॥
धूम अँधार, कपाल निसाकर, हाड़ नछत्र लहू सी ललाई।
आनँद हेतु निशाचर के यह काल मसान सो सॉझ बनाई॥