पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२१८

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सत्यहरिश्चंद्र

"टूट ठाट घर टपकत खटियौ टूट।
पिय कै बॉह उसिसवाँ सुख कै लूट॥"

बिधना ने इस दुःख पर भी वियोग दिया। हा! यह वर्षा और यह दुःख! हरिश्चंद्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब सहेगा, पर जिसने सपने में भी दुःख नहीं देखा वह महारानी किस दशा में होगी। हा देवि! धीरज धरो, धीरज धरो! तुमने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है, जिसके साथ सदा दुःख ही दुःख है। ( ऊपर देखकर ) पानी बरसने लगा। अरे! ( घोघी भली भॉति अोढ़कर ) हमको तो यह वर्षा और श्मशान दोनों एक ही से दिखाई पड़ते हैं। देखो---

चपला की चमक चहूँघा सों लगाई चिता
चिनगी चिलक पटबीजना चलायो है।
हेती बगमाल स्याम बादर सु भूमि कारी
बीरबधू लहूबूँद भुव लपटायो है॥
'हरीचंद' नीर-धार आँसू सी परत जहाँ
दादुर को सोर रोर दुखिन मचायो है।
दाहन बियोग दुखियान को मरे हू यह
देखो पापी पावस मसान बनि आयो है॥