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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२१९

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भारतेंदु-नाटकावली

( कुछ देर तक चुप रहकर ) कौन है? ( खबरदार इत्यादि कहता हुआ इधर-उधर फिर कर )

इंद्र काल हू सरिस जो आयसु लॉघै कोय।
यह प्रचंड भुजदंड मम प्रतिभट ताको होय॥

अरे कोई नहीं बोलता। ( कुछ आगे बढ़कर ) कौन है?

( नेपथ्य में )

हम है।

हरि०---अरे हमारी बात का यह उत्तर कौन देता है? चलें, जहाँ से आवाज आई है वहाँ चलकर देखें। ( आगे बढ़कर नेपथ्य की ओर देखकर ) अरे यह कौन है?

चिता-भस्म सब अंग लगाए। अस्थि-अभूषन बिबिध बनाए॥
हाथ कपाल मसान जगावत। को यह चल्यो रुद्र सम आवत॥

( कापालिक के वेष में धर्म* आता है )

धर्म---अरे, हम हैं।

वृत्ति अयाचित आत्म-रति करि जग के सुख त्याग।
फिरहिं मसान मसान हम धारि अनंद बिराग॥

( आगे बढ़कर महाराज हरिश्चंद्र को देखकर आप ही आप )


  • गेरुए वस्त्र का काला काछे, गेरुआ कफनी पहिने, सिर के बाल खोले, सेंदुर का अर्द्धचंद्र किए, नंगी तलवार गले में लटकती हुई, एक हाथ में खप्पड़ बलता हुआ, दूसरे हाथ में चिमटा, अंग में भभूत पोते, नशे से आँखें लाल, लाल फूल की माला और हड्डी के आभूषण पहिने।