पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२३१

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सत्यहरिश्चंद्र

पुकारेगा? अरे आज किस बैरो की छाती ठंढी भई रे? अरे, तेरे सुकुँआर अंगों पर भी काल को तनिक दया न आई! अरे बेटा! अॉख खोलो। हाय! मैं सब बिपत तुम्हारा ही मुँह देख कर सहती थी, सो अब कैसे जीती रहूँगी। अरे लाल! एक बेर तो बोलो! ( रोती है )

हरि०---न जाने क्यो इसके रोने पर मेरा कलेजा फटा जाता है।

शैव्या---( रोती हुई ) हा नाथ! अरे अपने गोद के खेलाए बच्चे की यह दशा क्यों नहीं देखते? हाय! अरे तुमने तो इसको हमें सौंपा था कि इसे अन्छी तरह पालना, सो हमने इसकी यह दशा कर दी। हाय! अरे ऐसे समय में भी आकर नहीं सहाय होते! भला एक बार लड़के का मुँह तो देख जाओ! अरे मैं अब किसके भरोसे जीऊँगी!

हरि०–--हाय-हाय! इसकी बातो से तो प्राण मुँह को चले आते हैं और मालूम होता है कि संसार उलटा जाता है। यहाँ से हट चलें। ( कुछ दूर हट कर उसकी ओर देखता खड़ा हो जाता है )

शैव्या---( रोती हुई ) हाय! यह बिपत का समुद्र कहाँ से उमड़ पड़ा। अरे छलिया मुझे छल कर कहाँ भाग गया! ( देखकर ) अरे आयुष की रेखा तो इतनी लंबी है,