पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२४३

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सत्यहरिश्चंद्र

हरि०---( प्रणाम करके गद्गद् स्वर से ) प्रभु! आपके दर्शन से सब इच्छा पूर्ण हो गई, तथापि आपके आज्ञानुसार यह वर माँगता हूँ कि मेरी प्रजा भी मेरे साथ वैकुंठ जाय और सत्य सदा पृथ्वी पर स्थिर रहे।

भग०---एवमस्तु, तुम ऐसे ही पुण्यात्मा हो कि तुम्हारे कारण अयोध्या के कीट-पतंग जीव-मात्र सब परमधाम जायँगे, और कलियुग में धर्म के सब चरण टूट जायँगे, तब भी वह तुम्हारे इच्छानुसार सत्य-मात्र एक पद से स्थित रहेगा। इतना ही देकर मुझे संतोष नहीं हुआ; कुछ और भी मॉगो। मैं तुम्हें क्या-क्या दूँ? क्योकि मैं तो अपने ही को तुम्हें दे चुका। तथापि मेरी इच्छा यही है कि तुमको और कुछ वर दूँ। तुम्हे वर देने में मुझे संतोष नहीं होता।

हरि०---( हाथ जोड़कर ) भगवन्! मुझे अब कौन इच्छा है? मैं और क्या घर मागूँ? तथापि भरत का यह वाक्य सुफल हो---

खलगनन सो सज्जन दुखी मत होइँ, हरिपद रति रहै।
उपधर्म छुटै, सत्त्व निज भारत गहै, कर-दुख बहै॥
बुध तजहिं मत्सर, नारि-नर सम होहिं, सब जग सुख लहै।
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृतबानी सब कहै॥

( पुष्पवृष्टि और बाजे की ध्वनि के साथ जवनिका गिरती है )