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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२४२

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भारतेंदु-नाटकावली

पार्वती---पुत्री शैव्या! तुम्हारे पति के साथ तुम्हारी कीर्ति स्वर्ग की स्त्रियाँ गावें। तुम्हारी पुत्रवधू सौभाग्यवती हो और लक्ष्मी तुम्हारे घर का कभी त्याग न करें।

( हरिश्चन्द्र और शैन्या प्रणाम करते हैं )

भैरव---और जो तुम्हारी कीर्ति कहे-सुने और उसका अनुसरण करे उसको भैरवी यातना न हो।

इंद्र---( राजा को आलिंगन करके और हाथ जोड़ के ) महाराज! मुझे क्षमा कीजिए। यह सब मेरी दुष्टता थी। परंतु इस बात से आपका तो कल्याण ही हुआ; स्वर्ग कौन कहे, आपने अपने सत्यबल से ब्रह्मपद पाया। देखिए, आपकी रक्षा के हेतु श्रीशिव जी ने भैरवनाथ को आज्ञा दी थी, आप उपाध्याय बने थे, नारदजी बटु बने थे, साक्षात् धर्म ने आपके हेतु चांडाल और कापालिक का वेष लिया, और सत्य ने आप ही के कारण चांडाल के अनुचर और बैताल का रूप धारण किया। न आप बिके न दास हुए, यह सब चरित्र भगवान् नारायण की इच्छा से केवल आप के सुयश के हेतु किया गया।

हरि०---( गद्गद् स्वर से ) अपने दासों का यश बढ़ाने वाला और कौन है?

भग०---महाराज! और भी जो इच्छा हो, माँगो।