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भारतेंदु-नाटकावली

सूत्र०---हो क्या गया है? क्या मैं झूठ कहता हूँ? इससे बढ़कर और दुःख का विषय क्या होगा कि मेरा आज इस जगत् के कर्ता और प्रभु पर से विश्वास उठा जाता है और सच है क्यों न उठे, यदि कोई हो तब न न उठे। हा! क्या ईश्वर है तो उसके यही काम हैं जो संसार में हो रहे हैं? क्या उसकी इच्छा के बिना भी कुछ होता है? क्या लोग दीनबन्धु दयासिंधु उसको नहीं कहते? क्या माता-पिता के सामने पुत्र की, स्त्री के सामने पति की और बंधुओं के सामने बन्धुओं की मृत्यु उसकी इच्छा बिना ही होती है? क्या सज्जन लोग विद्यादि सुगुण से अलंकृत होकर भी उसकी इच्छा बिना ही दुखी होते हैं और दुष्ट मूर्खों के अपमान सहते हैं? केवल प्राणमात्र नहीं त्याग करते, पर उनकी सब गति हो जाती है। क्या इस कमल-धन-रूप भारतभूमि को दुष्ट गजों ने उसकी इच्छा बिना ही छिन्न-भिन्न कर दिया? क्या जब नादिर-चंगेजखाँ ऐसे निर्दयों ने लाखों निर्दोषी जीव मार डाले तब वह सोता था? क्या अब भरतखंड के लोग ऐसे कापुरुष और दीन उसकी इच्छा के बिना ही हो गये? हा! ( आँसू बहते हैं ) लोग कहते हैं कि यह उसके खेल हैं। छि! ऐसे निर्दय को भी लोग दयासमुद्र किस मुँह से पुकारते हैं?

पारि०---इतना क्रोध एक साथ मत करो। यह संसार तो