पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२५४

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प्रेमजोगिनी

माखन---ई तो हई है पर उन्है तो ऐसी सेखी है कि सारा जमाना मूरख है औ मैं पंडित। थोड़ा सा कुछ पढ़ वढ़ लिहिन हैं।

छक्कूजी---पढिन का है, पढ़ा-वढा कुछ भी नहिनी, एहर-ओहर की दुइ-चार बात सीख लिहिन किरिस्तानी मते की, अपने मारग की बात तो कुछ जनबै नाहीं कतैं, अबहीं कल के लड़का हैं।

माखन०---और का।

( बालमुकुन्द और मलजी आते हैं )

दोनों---( छक्कू की ओर देखकर ) जय श्रीकृष्ण बाबू साहब।

छक्कूजी---जय श्रीकृष्ण, आओ बैठो, कहो नहाय आयो?

बालमु०---जी, भय्याजी का तो नेम है कि बड़े सबेरे नहा कर फूलघर में जाते हैं तब मंगला के दर्शन करके तब घर में जायकर सेवा में नहाते हैं और मैं तो आजकल कार्तिक के सबब से नहाता हूँ, तिस पर भी देर हो जाती है। रोकड़ मेरे जिम्मे काकाजी ने कर रखा है इस्से बिध-विध मिलाते देर हो जाती है, फिर कीर्तन होते प्रसाद बँटते ब्यालू-वालू कर्ते बारह कभी एक बजते हैं।

छक्कूजी---अच्छी है जो निबही जाय; कहो कातिक नहाये बाबू रामचंद जाथें कि नाहीं?

बालमु०---क्यों, जाते क्यों नहीं? अब की दोनों भाई जाते हैं, कभी दोनों साथ, कभी आगे-पीछे, कभी इनके साथ मसाल,