पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२५६

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प्रेमजोगिनी

(सड़सी से गरम जल की गगरी उठाए सनिया लपेटे जलघरिया आता है)

झप०---कहो जगेसर, ई नाही कि जब शंखनाद होय तब झटपट अपने काम से पहुँच जावा करो।

जलपरिया---अरे चल्ले तो आवई का भहराय पड़ीं? का सुत्तल थोड़े रहली? हमहूँ के झापट कंधे पर रखके एहर-ओहर घूमै के होत तब न। इहाँ तो गगरा ढोवत-ढोवत कंधा छिल जाला। (यह कहकर जाता है)

( मैली धोती पहिने दोहर सिर में लपेटे टेकचंद आए )

टेकचंद---( मथुरादास की ओर देखकर ) कहो मथुरादास जी, रूडा छो?

मथुरा०–--हाँ साहेब, अच्छे हैं। कहिए तो सही आप इतने बड़े उच्छव में कलकत्ते से नहीं आए! हियाँ बड़ा सुख हुआ था, बहुत से महाराज लोग पधारे थे। षट रुत छप्पन भोग में बड़े आनन्द हुए।

टेक०---भाई साहब, अपने लोगन का निकास घर से बड़ा मुसकिल है। एक तो अपने लोगन का रेल के सवारी से बड़ा बखेड़ा पड़ता है, दुसरे जब जौन काम के वास्ते जाओ जब तक अोका सब इंतजाम न बैठ जाय तब तक हुँवा जाए से कौन मतलब और सुख तो भाई साहब श्रीगिरराजजी महाराज के आगे जो-जो देखा है सो