पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२७

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जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस।
ता सुत श्री हरिचंद को, को न नवावे सीस॥

इसमें से प्रायः बीस रचनाएँ मिल गई हैं, जिनका विवरण देने के लिए एक अलग लेख की आवश्यकता होगी।

पुण्यतोया भागीरथी के तट पर स्थित पवित्र पुरी काशी में भाद्रपद शुक्ल ऋषि पंचमी सं॰ १९०७ (९ सितम्बर १८५० ई॰)को सोमवार के दिन भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने अवतीर्ण होकर हिन्दी साहित्य के भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्रगगनांगण को द्वितीया के चन्द्र के समान शोभायमान किया था। इनकी माता इन्हे पाँच वर्ष की अवस्था का और पिता दस वर्ष की अवस्था का छोड़कर परलोक सिधारे थे। शिक्षा इनकी बाल्यावस्था ही से प्रारम्भ हो गई थी और पं॰ ईश्वरी दत्त ही शुरू में इन्हे पढ़ाते थे। मौलवी ताज अली से कुछ उर्दू पढ़ी थी और अंग्रेजी की आरम्भिक शिक्षा तो इन्हें पं॰ नंदकिशोर जी से प्राप्त हुई। कुछ दिन इन्होंने ठठेरी बाजार वाले महाजनी स्कूल में तथा कुछ दिन राजा शिवप्रसाद जी से शिक्षा प्राप्त की थी। इसी नाते यह उनको गुरुवर लिखते थे। पिता की मृत्यु पर यह क्वीन्स कालेज में भर्ती किए गए और समय पर वहाँ जाने भी लगे। इन्होने पढ़ने में कभी भी मन नहीं लगाया पर प्रतिभा विलक्षण थी इसलिए पाठ एक बार सुनकर ही याद कर लेते थे और जिन परीक्षाओं में इन्होंने योग दिया उनमें यह उत्तीर्ण भी हो गए। छात्रावस्था में भी इन्हें कविता का शौक था और उस समय की इनकी प्रायः सभी रचनाएँ श्रृंगार रस की थीं। सं॰ १९२० के अगहन महीने मे