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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२७१

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प्रेमजोगिनी

जहाँ ब्रज-ललना-लालित चरण-युगल पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंदघन वासुदेव आप ही श्री गोपाललाल रूप धारण करके प्रेमियो को दर्शन-मात्र से कृत-कृत्य करते हैं और भी बिदुमाधवादि अनेक रूप से अपने नाम-धाम के स्मरण, दर्शन, चिंतनादि से पतितों को पावन करते हुए विराजमान हैं।

जिन मंदिरों में प्रातःकाल संध्या समय दर्शको की भीड़ जमी हुई है, कहीं कथा, कहीं हरिकीर्तन, कहीं नाम-कीर्तन, कहीं नाटक, कहीं भगवत-लीला-अनुकरण इत्यादि अनेक कौतुको के मिस से भी भगवान के नाम-गुण में लोग मग्न हो रहे है।

जहाँ तारकेश्वर विश्वेश्व रादि नामधारी भगवान भवानी--पति तारकब्रह्म का उपदेश करके तनत्याग मात्र से ज्ञानियों को भी दुर्लभ अपुनर्भव परम मोक्षपद---मनुष्य, पशु, कीट, पतंगादि आपामर जीवमात्र को देकर उसी क्षण अनेक कल्पसंचित महापापपुंज भस्म कर देते हैं।

जहाँ अंधे, लँगड़े, लूले, बहरे, मूर्ख और निरुद्यम आलसी जीवों को भी भगवती अन्नपूर्णा अन्न-वस्त्रादि देकर माता की भाँति पालन करती है।

जहाँ अब तक देव, दानव, गंधर्व, सिद्ध, चारण, विद्या-धर, देवर्षि, राजर्षिगण और सब उत्तम-उत्तम तीर्थ---