पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२८३

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प्रेमजोगिनी

त्यांचा विचार आहे व या कामांत धनतुंदिल शास्त्रीनी हात घातला आहे।

गप्प पंडित---अं:, तो ऐसी क्षुल्लक बात के हेतु शास्त्राधार का क्या काम है? इसमें तो बहुत से आधार मिलेंगे।

माधव शास्त्री---हॉ पंडितजी आप ठीक कहते हैं, क्योंकि हम लोगों का वाक्य और ईश्वर का वाक्य समान ही समझना चाहिए "विप्रवाक्ये जनार्दनः" "ब्राह्मणो मम दैवतं" इत्यादि।

गोपाल---ठीकच आहे, आणि जरि कदाचित् असल्या दुर्घट कामानी अाम्ही लोकदृष्टया निन्द्य झालों तथापि वन्धच आहों, कारण श्रीमद्भागवतांत ही लिहलें आहे "विप्रंकृतागसमपि नैव द्रुह्येत कश्चनेत्यादि"।

गप्प पंडित---हॉजी, और इसमें निन्द्य होने का भी क्या कारण? इसमें शास्त्र के प्रमाण बहुत से हैं और युक्ति तो हुई है। पहिले यही देखिए कि इस तौर कर्म से दो मनुष्यों को अर्थात् वह कन्या और उसके स्वजन इनको बहुत ही दुःख होगा और उसके प्रतिबंध से सबको परम आनंद होगा। तब यहाँ इस वचन को देखिए---

"येन केनाप्युपायेन यस्य कस्यापि देहिनः।
संतोष जनयेत् प्राज्ञस्तदेवेश्वरपूजनं॥"