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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२८४

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भारतेंदु-नाटकावली

बुभु०---और ऐसे बहुत से उदाहरण भी इसी काशी में होते आए हैं। दूसरा काशीखंड ही में कहा है "येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसीगतिः।"

चंबूभट्ट---मूर्खतागार का भी यह वाक्य है "अधवा वाललवनं जीवनार्द्दनवद्भवेत्"। संतोषसिंधु में भी "सकेशैव हि संस्थाप्या यदि स्यात्तोषदा नृणां"।

महाश---दीक्षितजी! बूटी झाली---अब छने जल्दी कारण बहुत प्यासा जीव होऊन गेला अणखी अझून पुष्कल ब्राह्मण सांगायचे आहेत।

बुभु०---( भॉग की गोली और जल, बरतन, कटोरा, साफी लेकर ) शास्त्रीजी! थोड़े से बढ़ा तर।

माधव शास्त्री---दीक्षितजी! हे मॉझें काम नह्वें, कारण मी अपला खाली पीण्याचा मालिक आहे, मला छानतां येत नाहीं। ( गोपाल शास्त्री की अोर दिखलाकर ) ये इसमें परम प्रवीण हैं।

गोपाल शास्त्री---अच्छा दीक्षितजी, मीच आलों सही।

चंबूभट्ट---( इन सबों को अपने काम में निमग्न देखकर ) बरें मग महाश अखेरीस तड़ाचे किती ब्राह्मण सहस्रभोजनाचे व वसंतपूजेचे किती?

महाश---दीक्षिताचे तड़ांत आज एकंदर २५ ब्राह्मण; पैकीं १५ सहस्रभोजनाकड़े आणि १० वसंतपूजेकड़े---