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भारतेंदु-नाटकावली

सा नाटक करने का विचार है और उसमें ऐसा कौन सा रस है कि फूले नहीं समाते?

सूत्र---आ:, तुमने अब तक न जाना? आज मेरा विचार है कि इस समय के बने एक नए नाटक की लीला करूँ, क्योंकि संस्कृत नाटको को अपनी भाषा में अनुवाद करके तो हम लोग अनेक बार खेल चुके हैं, फिर बारंबार उन्हीं के खेलने को जी नहीं चाहता।

पारि०---तुमने बात तो बहुत अच्छी सोची, वाह क्यों न हो, पर यह तो कहो कि वह नाटक बनाया किसने है?

सूत्र०---हम लोगो के परम मित्र हरिश्चंद्र ने।

पारि०---( मुँह फेर कर ) किसी समय तुम्हारी बुद्धि में भी भ्रम हो जाता है। भला वह नाटक बनाना क्या जाने। वह तो केवल आरंभशूर है। और अनेक बड़े-बड़े कवि हैं, कोई उनका प्रबंध खेलते।

सूत्र---( हँसकर ) इसमें तुम्हारा दोष नहीं, तुम तो उससे नित्य नहीं मिलते। जो लोग उसके संग में रहते हैं वे तो उसको जानते ही नहीं, तुम बिचारे क्या हो।

पारि०---( आश्चर्य से ) हाँ, मैं तो जानता ही न था, भला कहो उनके दो-चार गुण मैं भी सुन सकता हूँ?

सूत्र०---क्यों नहीं, पर जो श्रद्धा से सुनो तो।