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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२९६

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श्रीचंद्रावली

यारि०---मैं प्रति रोम को कर्ण बना कर महाराज पृथु हो रहा हूँ, आप कहिए।

सूत्र०---( आनंद से ) सुनो---

परम-प्रेम-निधि रसिक-बर, अति-उदार गुन-खान।
जग-जन-रंजन आशु-कवि, को हरिचंद-समान॥
जिन श्रीगिरिधरदास कबि, रचे ग्रंथ चालीस।
ता-सुत श्रीहरिचंद कों, को न नवावै सीस॥
जग जिन तृन-सम करि तज्यौ, अपने प्रेम-प्रभाव।
करि गुलाब सो आचमन, लीजत वाको नाँव॥
चंद टरै सूरज टरै, टरैं जगत के नेम।
यह दृढ़, श्रीहरिचंद को, टरै न अविचल प्रेम॥

पारि०---वाह-वाह! मैं ऐसा नहीं जानता था, तब तो इस प्रयोग में देर करनी ही भूल है।

( नेपथ्य में )

स्त्रवन-सुखद भव-भय-हरन, त्यागिन को अत्याग।
नष्ट-जीव बिनु कौन हरि-गुन सों करै विराग?
हम सौंहू तजि जात नहिं, परम पुन्य फल जौन।
कृष्णकथा सौं मधुरतर जग मैं भाखौ कौन?

सूत्र०---( सुनकर आनंद से ) अहा! वह देखो मेरा प्यारा छोटा भाई शुकदेव जी बनकर रंगशाला में आता है