पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२९८

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अथ विष्कम्भक

( आनंद में झूमते हुए डगमगी चाल से शुकदेवजी आते हैं )

शुक०---( सपन-सुखद इत्यादि फिर से पढ़कर ) अहा! संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है, कोई नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त, कोई मत-मतांतर के झगड़े में मतवाला हो रहा है, एक दूसरे को दोष देता है, अपने को अच्छा समझता है, कोई संसार ही को सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता है, कोई परमार्थ ही को परम पुरुषार्थ मानकर घर-बार तृण सा छोड़ देता है। अपने-अपने रंग में सब रँगे है। जिसने जो सिद्धांत कर लिया है वही उसके जी में गड़ रहा है और उसी के खंडन-मंडन में जन्म बिताता है, पर वह जो परम प्रेम अमृत-मय एकांत भक्ति है, जिसके उदय होते ही अनेक प्रकार के आग्रह-स्वरूप ज्ञान-विज्ञा-नादिक अंधकार नाश हो जाते हैं और जिसके चित्त में आते ही संसार का निगड़ आपसे आप खुल जाता है--- वह किसी को नहीं मिली; मिले कहाँ से? सब उसके अधिकारी भी तो नहीं हैं। और भी, जो लोग धार्मिक कहाते हैं उनका चित्त, स्वमत-स्थापन और पर-मत-निराकरण-रूप वादविवाद से, और जो विचारे विषयी हैं