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भारतेंदु-नाटकावली

ललिता---जो चित्त से कहती तो फिर मुझसे क्यों छिपाती?

चंद्रा०---नहीं सखी, यह केवल तेरा झूठा संदेह है।

ललिता---सखी, मैं भी इसी व्रज में रहती हूँ और सब के रंग- ढंग देखती ही हूँ। तू मुझसे इतना क्यों उड़ती है? क्या तू यह समझती है कि मैं यह भेद किसी से कह दूँगी? ऐसा कभी न समझना। सखी, तू तो मेरी प्राण है। मैं तेरा भेद किससे कहने जाऊँगी?

चंद्रा०---सखी, भगवान् न करे कि किसी को किसी बात का संदेह पड़ जाय; जिसको जो संदेह पड़ जाता है वह फिर कठिनता से मिटता है।

ललिता---अच्छा, तू सौगंद खा।

चंद्रा०---हॉ सखी, तेरी सौगंद।

ललिता---क्या मेरी सौगंद?

चंद्रा०---तेरी सौगंद कुछ नहीं है।

ललिता---क्या कुछ नहीं है, फिर तू चली न अपनी चाल से? तेरी छलविद्या कहीं नहीं जाती। तू व्यर्थ इतना क्यों छिपाती है! सखी, तेरा मुखड़ा कहे देता है कि तू कुछ न कुछ सोचा करती है।

चंद्रा०---क्यों सखी, मेरा मुखड़ा क्या कहे देता है?

ललिता---यही कहे देता है कि तू किसी की प्रीति में फँसी है।

चंद्रा०---बलिहारी सखी, मुझे अच्छा कलंक दिया।