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श्रीचंद्रावली

हूँ। यह तो मैंने हँसी की थी। क्या मैं नहीं जानती कि तू मुझसे कोई बात न छिपावेगी और छिपावेगी तो काम कैसे चलेगा, देख!

हम भेद न जानिहै जो पै कछू
औ दुराव सखी हम मैं परिहै।
कहि कौन मिलैहै पियारे पियै
पुनि कारज कासों सबै सरिहै॥
बिन मोसो कहै न उपाय कछु
यह बेदन दूसरी को हरिहै।
नहिं रोगी बताइहै रोगहि जौ
सखी बापुरो बैद कहा करिहै॥

चंद्रा०---तो सखी, ऐसी कौन बात है जो तुझसे छिपी है? तू जान-बूझ के बार-बार क्यो पूछती है? ऐसे पूछने को तो मुँह चिढ़ाना कहते हैं और इसके सिवा मुझे व्यर्थ याद दिलाकर क्यो दुःख देती है? हा!

ललिता---सखी, मैं तो पहिले ही समझी थी, यह तो केवल तेरे हठ करने से मैंने इतना पूछा, नहीं तो मैं क्या नहीं जानती?

चंद्रा---सखी, मैं क्या करूँ, मैं कितना चाहती हूँ कि यह ध्यान भुला दूँ, पर उस निठुर की छबि भूलती नहीं, इसी से सब जान जाते हैं।

ललिता---सखी, ठीक है।