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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३०९

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भारतेंदु-नाटकावली

लगौंही चितवनि औरहि होति।
दुरत न लाख दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति॥
घूँघट मैं नहिं थिरत तनिक हूँ अति ललचौंहीं बानि।
छिपत न कैसहुँ प्रीति निगोड़ी अंत जात सब जानि॥

चंद्रा०---सखी, ठीक है। जो दोष है वह इन्हीं नेत्रो का है। यही रीझते, यही अपने को छिपा नहीं सकते और यही दुष्ट अंत में अपने किए पर रोते हैं।

सखी ये नैना बहुत बुरे।
तब सों भए पराये, हरि सो जब सों जाइ जुरे॥
मोहन के रस बस कै डोलत तलफत तनिक दुरे।
मेरी सीख प्रीति सब छॉड़ी ऐसे ये निगुरे॥
जग खीझ्यौ बरज्यौ पै ये नहिं हठ सो तनिक मुरे।
अमृत-भरे देखत कमलन से विष के बुते छुरे॥

ललिता---इसमें क्या संदेह है। मुझ पर तो सब कुछ बीत चुकी है। मैं इनके व्यवहारो को अच्छी रीति से जानती हूँ। ये निगोड़े नैन ऐसे ही होते हैं।

होत सखि ये उलझौंहैं नैन।
उरझि परत, सुरझ्यौ नहिं जानत, सोचत समुझत हैं न॥
कोऊ नहिं बरजै जो इनको बनत मत्त जिमि गैन।
कहा कहौं इन बैरिन पाछे होत लैन के दैन॥