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श्रीचंद्रावली

पहिले मुसुकाइ लजाइ कछु
क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो।
पुनि नैन लगाइ बढाइकै प्रीति
निबाहन को क्यौं कलाम कियो।
'हरिचंद' भए निरमोही इते निज
नेह को यो परिनाम कियो।
मन मॉहि जो तोरन ही की हुती,
अपनाइकै क्यों बदनाम कियो॥

प्यारे, तुम बड़े निरमोही हो। हा! तुम्हें मोह भी नहीं आता? ( अॉख में ऑसू भरकर ) प्यारे, इतना तो वे नहीं सताते जो पहिले सुख देते हैं, तो तुम किस नाते इतना सताते हो? क्योकि--

जिय सूधी चितौन की साधै रही,
सदा बातन मैं अनखाय रहे।
हँसिकै 'हरिचंद' न बोले कभूँ,
जिय दूरहि सो ललचाय रहे॥
नहिं नेकु दया उर आवत है,
करिके कहा ऐसे सुभाय रहे।
सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले,
जिहिके बदले यों सताय रहे।