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भारतेंदु-नाटकावली

कहूँ, और क्या कहूँ, और क्यों कहूँ, और कौन सुने और सुने भी तो कौन समझे---हा!

जग जानत कौन है प्रेम-बिथा,
केहि सों चरचा या बियोग की कीजिए।
पुनि को कही मानै कहा समुझै कोउ
क्यौं बिन बात की रारहि लीजिए॥
नित जो 'हरिचंद जू' बीतै सहै,
बकिकै जग क्यौं परतीतहि छीजिए।
सब पूछत मौन क्यौं बैठि रही,
पिय प्यारे कहा इन्है उत्तर दीजिए॥

क्योकि---

मरम की पीर न जानत कोय।
कासों कहौं कौन पुनि मानै बैठि रहीं घर रोय॥
कोऊ जरनि न जाननहारी बे-महरम सब लोय।
अपुनी कहत सुनत नहिं मेरी केहि समुझाऊँ सोय॥
लोक-लाज कुल की मरजादा दीनी है सब खोय।
'हरीचंद' ऐसेहि निबहैगी होनी होय सो होय॥

परंतु प्यारे, तुम तो सुननेवाले हो? यह आश्चर्य है कि तुम्हारे होते हमारी यह गति हो। प्यारे! जिनको नाथ नहीं होते वे अनाथ कहाते हैं। ( नेत्रों से आँसू गिरते हैं ) प्यारे! जो यही गति करनी थी तो अपनाया क्यों?