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भारतेंदु-नाटकावली

पीत पटै बिजुरी से कबौं
'हरिचंद जू' धाइ इतै चमकाइए।
इतहू कबौं आइकै आनंद के धन
नेह को मेह पिया बरसाइए॥

प्यारे! चाहे गरजो चाहे लरजो, इन चातकों की तो तुम्हारे बिना और गति ही नहीं है, क्योंकि फिर यह कौन सुनेगा कि चातक ने दूसरा जल पी लिया; प्यारे! तुम तो ऐसे करुणा के समुद्र हो कि केवल हमारे एक जाचक के मॉगने पर नदी-नद भर देते हो तो चातक के इस छोटे चंचु-पुट भरने में कौन श्रम है क्योंकि प्यारे हम दूसरे पक्षी नहीं हैं कि किसी भॉति प्यास बुझा लेंगे हमारे तो हे श्याम घन, तुम्ही अवलंब हौ; हा!

( नेत्रों में जल भर लेती है और तीनों परस्पर चकित होकर देखती हैं )

बन०---सखी, देखि तौ कछू इनकी हू सुन कछू इनकी हू लाज कर। अरी, यह तो नई आई हैं ये कहा कहैंगी?

संध्या---सखी, यह कहा कहैहै हम तो याको प्रेम देखि बिन मोल की दासी होय रही हैं और तू पंडिताइन बनिकै ज्ञान छॉटि रही है।

चंद्रा०---प्यारे! देखो ये सब हँसती हैं---तो हँसें, तुम आओ, कहाँ बन में छिपे हो? तुम मुँह दिखलायो, इनको हँसने दो।