पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३३५

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दूसरे अंक के अंतर्गत

अंकावतार

स्थान---बीथी, वृक्ष

( संध्यावली दौड़ी हुई आती है )

संध्या राम राम! मैं तो दौरत-दौरत हार गई, या व्रज की गऊ का हैं सॉड़ हैं; कैसी एक साथ पूँछ उठाय कै मेरे संगदौरी हैं, तापैं वा निपूते सुवल को बुरो होय, और हू तूमड़ी बजाय कै मेरी ओर उन सबन को लहकाय दीना, अरे जो मैं एक संग प्रान छोड़ि कै न भाजती तो उनके रपट्टा में कब की आय जाती। देखि आज वा सुवल की कौन गति कराऊँ, बड़ो ढीठ भयो है, प्रानन की हॉसी कौन काम की। देखो तो आज सोमवार है नंदगॉव में हाट लगी होयगी मैं वहीं जाती, इन सबन ने बीच ही आय धरी, मैं चंद्रावली की पाती वाके यारैं सौंप देती तो इतनो खुटकोऊ न रहतो। ( घबड़ाकर ) अरे आई ये गौवें तो फेर इतैही कूँ अरराई।

( दौड़कर जाती है और चोली में से पत्र गिर पड़ता है। चंपकलता आती है )

चंपक०---( पत्र गिरा हुआ देखकर ) अरे! यह चिट्ठी किसकी पड़ी है, किसी की हो देखूँ तो इसमें क्या लिखा है।