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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३३४

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भारतेंदु-नाटकावली

मिला। हा! मैं इसी दुख को देखने को जीती हूँ कि बरषा आवे और तुम न आओ। हाय! फेरे बरषा आई, फेर पत्ते हरे हुए, फेर कोइल बोली, पर प्यारे तुम न मिले। हाय! सब सखियाँ हिंडोले झूलती होंगी, पर मैं किसके संग भूलूँ, क्योकि हिंडोला मुलाने वाले मिलेंगे, पर आप भींजकर मुझे बचाने वाला और प्यारी कहनेवाला कौन मिलेगा? ( रोती है ) हा! मैं बड़ी निर्लज हूँ। अरे प्रेम! मैंने प्रेमिन बनकर तुझे भी लज्जित किया कि अब तक जीती हूँ, इन प्रानो को अब न जाने कौन लाहे लूटने हैं कि नहीं निकलते। अरे कोई देखो, मेरी छाती वज्र की तो नहीं है कि अब तक ( इतना कहते ही मूर्छा खाकर ज्योही गिरा चाहती है उसी समय तीनो सखियाँ आकर सम्हालती हैं )

( जवनिका गिरती है )

प्रियान्वेषण नामक दूसरा अंक समाप्त