सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२५
श्रीचंद्रावली

जिससे हाय निकले। इस व्यथा को मैं जानती हूँ और कोई क्या जानेगा क्योंकि "जाके पॉव न भई बिवाई सो क्या जाने पीर पराई"। यह तो हुआ पर यह चिट्ठी है किसकी? यह न जान पड़ी, ( कुछ सोचकर ) अहा जानी! निश्चय यह चंद्रावली ही की चिट्ठी है, क्योंकि अक्षर भी उसी के से हैं और इस पर चंद्रावली का चिह्न भी बनाया है। हा! मेरी सखी वुरी फँसी। मैं तो पहिले ही उसके लच्छनो से जान गई थी, पर इतना नहीं जानती थी; अहा गुप्त प्रीति भी विलक्षण होती है, देखो इस प्रीति में संसार की रीति से कुछ भी लाभ नहीं। मनुष्य न इधर का होता न उधर का। संसार के सुख छोड़कर अपने हाथ आप मूर्ख बन जाता है। जो हो, यह पत्र तो मैं आप उन्हें जाकर दे आऊँगी और मिलने की भी बिनती करूँगी।

( नेपथ्य में बूढ़ों के से सुर से )

हाँ तू सब करेगी।

चंप०---( सुनकर और सोचकर ) अरे यह कौन है। ( देखकर ) न जानै कोऊ बूढ़ी फूस सी डोकरी है। ऐसा न होय कै यह बात फोड़ि कै उलटी आग लगावै, अब तो पहिलै याहि समझावनो परयो, चलूँ।

[ जाती है

भेद प्रकाशन नामक अङ्कावतार

भा० ना०---१५