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श्रीचंद्रावली

बरसात में छूट जाते हैं, कोई जोगी होने ही पर मन ही मन पछताते हैं, कोई जटा पटककर हाय-हाय चिल्लाते हैं, और बहुतेरे तो तूमड़ी ताड़-तोड़कर जोगी से भोगी हो ही जाते हैं।

माधुरी---तो तू भी किसी सिद्ध से कान फुँकवाकर तुमड़ी तोड़वा ले।

कामिनी---चल! तू क्या जाने इस पीर को। सखी, यही भूमि और यही कदम कुछ दूसरे ही हो रहे हैं और यह दुष्ट बादल मन ही दूसरा किए देते हैं। तुझे प्रेम हो तब सूझे। इस आनंद की धुनि में संसार ही दूसरा एक बिचित्र शोभावाला और सहज काम जगानेवाला मालूम पड़ता है।

माधुरी---कामिनी पर काम का दावा है इसी से हेरफेर उसी को बहुत छेड़ा करता है।

( नेपथ्य में बारंबार मोर कूकते हैं )

कामिनी---हाय-हाय! इस कठिन कुलाहल से बचने का उपाय एक विषपान ही है। इन दईमारों का कूकना और पुरवैया का झकोरकर चलना यह दो बातें बड़ी कठिन हैं। धन्य हैं वे जो ऐसे समय में रंग रंग के कपड़े पहिने ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ी पीतम के संग घटा और हरियाली