माधुरी---और चंद्रावली?
कामिनी---हॉ, चंद्रावली बिचारी तो आप ही गई बीती है, उसमें भी अब तो पहरे में है, नजरबंद रहती है, झलक भी नहीं देखने पाती, अब क्या--
माधुरी---जाने दे नित्य का झंखना। देख, फिर पुरवैया झकोरने लगी और वृक्षों से लपटी लताएँ फिर से लरजने लगीं। साड़ियों के आँचल और दामन फिर उड़ने लगे और मोर लोगों ने एक साथ फिर शोर किया। देख यह घटा अभी गरज गई थी पर फिर गरजने लगी।
कामिनी---सखी वसंत का ठंढा पवन और सरद की चाँदनी से राम राम करके वियोगियो के प्राण बच भी सकते हैं, पर इन काली-काली घटा और पुरवैया के झोंके तथा पानी के एकतार झमाके से तो कोई भी न बचेगा।
माधुरी---तिसमें तू तो कामिनी ठहरी, तू बचना क्या जाने।
कामिनी---चल ठठोलिन। तेरी आँखो में अभी तक उस दिन की खुमारी भरी है, इसी से किसी को कुछ नहीं समझती। तेरे सिर बीते तो मालूम पड़े।
माधुरी---बीती है मेरे सिर। मैं ऐसी कच्ची नहीं कि थोड़े में बहुत उबल पडूँ।
कामिनी---चल, तू हई है क्या कि न उबल पड़ेगी। स्त्री की बिसात ही कितनी। बड़े-बड़े जोगियों के ध्यान इस